Sunday, March 19, 2006

रात यूं दिल में - फैज़ (with translation)

रात यूं दिल में तेरी खोई हुई याद आई,
जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए,
जैसे सहाराओं में हौले से चले बाद-ए-नसीम,
जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाए


Last night your faded memory came to me
As in the wilderness spring comes quietly,
As, slowly, in the desert, moves the breeze,
As, to a sick man, without cause, comes peace

अग्नि पथ-हरिवंश राय बच्चन

अग्नि पथ, अग्नि पथ, अग्नि पथ !

व्रिक्ष हों भले खड़े,
हों घने,हों बडे़,
एक पत्र-छाँह भी माँग मत, माँग मत,माँग मत!
अग्नि पथ, अग्नि पथ, अग्नि पथ !

तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ेगा कभी- कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!
अग्नि पथ, अग्नि पथ, अग्नि पथ !

यह महान द्रश्य है-
चल रहा मनुष्य है
अश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अग्नि पथ, अग्नि पथ, अग्नि पथ !

नव वर्ष- हरिवंश राय बच्चन

वर्ष नव,
हर्ष नव,
जीवन उत्कर्ष नव

नव उमंग,
नव तरंग,
जीवन का नव प्रसंग

नवल चाह,
नवल राह,
जीवन का नव प्रवाह

गीत नवल,
प्रीति नवल,
जीवन की रीति नवल,
जीवन की नीति नवल,
जीवन की जीत नवल

Saturday, March 18, 2006

रक़ीब से- फैज़ अहमद फैज़

आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रक्खा था

जिसकी उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफसाना बना रक्खा था

आशना हैं तेरे कदमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है

कारवां गुज़रे हैं जिन से उसी रा'नाई के
जिसकी इन आखों ने बेसूद इबादत की है

तुझसे खेली हैं वो महबूब हवाएं जिनमें
उसके मलबूस की अफ़सुर्दा महक बाकी है

तुझ पे भी बरसा है उस बाम से महताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाकी है

तूने देखी है वो पेशानी, वो रूख़्सार, वो होंट
ज़िन्दगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने

तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आंखे
तुझ को मालूम है क्यों उम्र गंवा दी हमने

हम पे मुश्तरिका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के
इतने एहसान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकूं
हमने इस इश्क में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊं तो समझा न सकूं


अजिज़ी सीखी, गरीबों की हिमायत सीखी,
यासो-हिर्मार के, दुख-दर्द के माने सीखे
ज़ेरदस्तों के मुसाइब को समझना सीखा,
सर्द आहों के, रूखे़-ज़र्द के मने सीखे


जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके,
अश्क आंखो मे बिलकते हुए सो जाते हैं
नातुवानों के निवाले पे झपटते हैं उकाब़
बाज़ू तोले हुए मंडलाते हुए आते हैं


जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है, न पूछ
अपने दिल पे मुझे काबू ही नहीं रहता है

मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग ! फैज़ अहमद फैज़

मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब ना मांग

मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शा है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झ़गडा़ क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है


तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं हो जाए
यूं न था, मैंने फ़कत चाहा था यूं हो जाए


और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशमों- अतलसो- कमख्वाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
खाक में लिथडे़ हुए, ख़ून में नहलाए हुए


जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग !

Sunday, March 05, 2006

वर दे-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

वर दे
वीणावंदिनि वर दे
प्रिय स्वतंत्र-रव अम्रत-मन्त्र नव
भारत में भर दे!

काट अन्धउर को बन्धनस्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निरझर
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे

नव गति, नव लय, ताल, छन्द नव,
नवल कण्ठ, नव जलद-मन्द रव,
नव नभ के नव विहग-व्रिन्द को,
नव पर नव स्वर दे!


सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

बच्चों कि लिए- इकबाल

लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी
ज़िन्दगी शम्मअ़ की सूरत हो खुदाया मेरी

दूर दुनिया का मेरे दम से अंधेरा हो जाये
हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए

हो मेरे दम से युंही मेरे वतन की ज़ीनत
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत

ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सूरत यारब
इल्म की शम्मअ़ से हो मुझको मोहब्बत

हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना
दर्द-मन्दों से, ज़ईफों से मोहब्बत करना


मेरे अल्लाह! बुराई से बचाना मुझको
नेक जो राहा है उस पर चलाना मुझको

Saturday, March 04, 2006

गीत नया गाता हूँ-अटल बिहारी वाजपेयी

गीत नया गाता हूँ-अटल बिहारी वाजपेयी

टूटे हुए तारों से फूटे वासन्ती स्वर,
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर,

झरे सब पीले पात,
कोयल की कुहुक रात,

प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूँ

गीत नया गाता हूँ

टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी?
अन्तर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी

हार नहीं मानूँगा,
रार नई ठानूँगा,

काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ

Friday, March 03, 2006

मानुस हौं तो वही रसखान

मानुस हौं तो वही रसखान,

बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।

जो पसु हौं तो कहा बस मेरो,

चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥

पाहन हौं तो वही गिरि को,

जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।

जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि

कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

या लकुटी अरु कामरिया पर,

राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।

आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख,

नंद की धेनु चराय बिसारौं॥

रसखान कबौं इन आँखिन सों,

ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।

कोटिक हू कलधौत के धाम,

करील के कुंजन ऊपर वारौं॥

सेस गनेस महेस दिनेस,

सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।

जाहि अनादि अनंत अखण्ड,

अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥

नारद से सुक व्यास रहे,

पचिहारे तू पुनि पार न पावैं।

ताहि अहीर की छोहरियाँ,

छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥

धुरि भरे अति सोहत स्याम जू,

तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।

खेलत खात फिरैं अँगना,

पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी॥

वा छबि को रसखान बिलोकत,

वारत काम कला निधि कोटी।

काग के भाग बड़े सजनी,

हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी॥

कानन दै अँगुरी रहिहौं,

जबही मुरली धुनि मंद बजैहै।

माहिनि तानन सों रसखान,

अटा चड़ि गोधन गैहै पै गैहै॥

टेरी कहाँ सिगरे ब्रजलोगनि,

काल्हि कोई कितनो समझैहै।

माई री वा मुख की मुसकान,

सम्हारि न जैहै, न जैहै, न जैहै॥

मोरपखा मुरली बनमाल,

लख्यौ हिय मै हियरा उमह्यो री।

ता दिन तें इन बैरिन कों,

कहि कौन न बोलकुबोल सह्यो री॥

अब तौ रसखान सनेह लग्यौ,

कौउ एक कह्यो कोउ लाख कह्यो री।

और सो रंग रह्यो न रह्यो,

इक रंग रंगीले सो रंग रह्यो री।

- रसखान

Thursday, March 02, 2006

गुलों में रंग-फैज़ अहमद 'फैज़' (gulon mein rang)

गुलों में रंग भरे आज नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

कफस उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

कभी तो सुबह तेरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुशकबार चले

बडा़ है दर्द का रिश्ता ये दिल गरीब सही
तुम्हारे नाम पे आएंगे गमगुसार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिजरां
हमारे अशक तेरी आकबत संवार चले

मकाम 'फैज़' कोई राह में जँचा ही नहीं
जो कुए यार से निकले तो सुए दार चले


फैज़ अहमद 'फैज़'

Wednesday, March 01, 2006

पुष्प की अभिलाषा- माखन लाल चतुर्वेदी

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ

चाह नहीं मैं प्रेमी माला में
बिंधप्यारी को ललचाऊँ

चाह नहीं सम्राटों के शव पर,
हे हरि डाला जाऊँ

चाह नहीं देवों के सर पर चढूँ,
भाग्य पर इठलाऊँ

मुझे तोड़ लेना बन-माली,
उस पथ पर देना तुम फेंक

मात्रभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जायें वीर
पथ जायें वीर अनेक!

Meghdoot ke prati

'मेघदूत' के प्रति-हरिवंश राय बच्चन
[महाकवि कालिदास के मेघदूत से साहित्यानुरागी संसार भलिभांति परिचित है
उसे पढ़ कर जो भावनाएँ ह्रदय में जाग्रत होती हैं, उन्हें ही मैंने निम्नलिखित
कविता में पद्यबध्द किया है भक्त गंगा की धारा में खड़ा होता है और उसीके
जल से अपनी अंजलि भरकर गंगा को समर्पित कर देता है इस अंजलि में
उसका क्या रहता है, सिवा उसकी श्रध्दा के? मैंने भी महाकवि की मंदाक्रांता की
मंद गति से प्रवाहित होने वाली इस कविता की मंदाकिनी के बीच खड़े हो कर,
इसी में कुछ अंजलि उठाकर इसीको अर्पित किया है
इसमें भी मेरे अपनेपन का भाग केवल मेरी श्रध्दा ही है ]

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

हो धरणि चाहे शरद की
चाँदनी में स्नान करती,
वायु ऋतु हेमंत की चाहे
गगन में हो विचरती,

हो शिशिर चाहे गिराता
पीत-जर्जर पत्र तरू के,
कोकिला चाहे वनों में,
हो वसंती राग भरती,

ग्रीष्म का मार्तण्ड चाहे,
हो तपाता भूमि-तल को,
दिन प्रथम आषाढ़ का में
'मेघ-चर' द्वारा बुलाता

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

भूल जाता अस्थि-मज्जा-
मांसयुक्त शरीर हूँ मैं,
भासता बस-धूम्र संयुत
ज्योति-सलिल-समीर हूँ मैं,

उठ रहा हूँ उच्च भवनों के,
शिखर से और ऊपर,

देखता संसार नीचे
इंद्र का वर वीर हूँ मैं,

मंद गति से जा रहा हूँ
पा पवन अनुकूल अपने
संग है वक-पंक्ति, चातक-
दल मधुर स्वर गीत गाता

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

झोपडी़, ग्रह, भवन भारी,
महल औ' प्रासाद सुंदर,
कलश, गुंबद, स्तंभ, उन्नत
धरहरे, मीनार द्धढ़तर,

दुर्ग, देवल, पथ सुविस्त्तत,
और क्रीडो़द्यान-सारे,
मंत्रिता कवि-लेखनी के
स्पर्श से होते अगोचर

और सहसा रामगिरि पर्वत
उठाता शीशा अपना,
गोद जिसकी स्निग्ध छाया
-वान कानन लहलहाता!

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

देखता इस शैल के ही
अंक में बहु पूज्य पुष्कर,
पुण्य जिनको किया था
जनक-तनया ने नहाकर

संग जब श्री राम के वे,
थी यहाँ पे वास करती,
देखता अंकित चरण उनके
अनेक अचल-शिला पर,

जान ये पद-चिन्ह वंदित
विश्व से होते रहे हैं,
देख इनको शीश में भी
भक्ति-श्रध्दा से नवाता

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

देखता गिरि की शरण में
एक सर के रम्य तट पर
एक लघु आश्रम घिरा बन
तरु-लताओं से सघनतर,

इस जगह कर्तव्य से च्युत
यक्ष को पाता अकेला,
निज प्रिया के ध्यान में जो
अश्रुमय उच्छवास भर-भर,

क्षीणतन हो, दीनमन हो
और महिमाहीन होकर
वर्ष भर कांता-विरह के
शाप के दुर्दिन बिताता

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

था दिया अभिशाप अलका-
ध्यक्ष ने जिस यक्षवर को,
वर्ष भर का दंड सहकर
वह गया कबका स्वघर को,

प्रयेसी को एक क्षण उर से
लगा सब कष्ट भूला

किन्तु शापित यक्ष
महाकवि, जन्म-भरा को!

रामगिरि पर चिर विधुर हो
युग-युगांतर से पडा़ है,
मिल ना पाएगा प्रलय तक
हाय, उसका शाप-त्राता!

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

देख मुझको प्राणप्यारी
दामिनी को अंक में भर
घूमते उन्मुकत नभ में
वायु के म्रदु-मंद रथ पर,

अट्टहास-विलास से मुख-
रित बनाते शून्य को भी
जन सुखी भी क्षुब्ध होते
भाग्य शुभ मेरा सिहाकर;

प्रणयिनी भुज-पाश से जो
है रहा चिरकाल वंचित,
यक्ष मुझको देख कैसे
फिर न दुख में डूब जाता?

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

देखता जब यक्ष मुझको
शैल-श्रंगों पर विचरता,
एकटक हो सोचता कुछ
लोचनों में नीर भरता,

यक्षिणी को निज कुशल-
संवाद मुझसे भेजने की
कामना से वह मुझे उठबार-
बार प्रणाम करता

कनक विलय-विहीन कर से
फिर कुटज के फूल चुनकर
प्रीति से स्वागत-वचन कह
भेंट मेरे प्रति चढा़ता

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

पुष्करावर्तक घनों के
वंश का मुझको बताकर,
कामरूप सुनाम दे, कह
मेघपति का मान्य अनुचर

कंठ कातर यक्ष मुझसे
प्रार्थना इस भांति करता-
'जा प्रिया के पास ले
संदेश मेरा,बंधु जलधर!

वास करती वह विरहिणी
धनद की अलकापुरी में,
शंभु शिर-शोभित कलाधर
ज्योतिमय जिसको बनाता'

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

यक्ष पुनः प्रयाण के अनु-
रूप कहता मार्ग सुखकर,
फिर बताता किस जगह पर,
किस तरह का है नगर, घर,

किस दशा, किस रूप में है
प्रियतमा उसकी सलोनी,
किस तरह सूनी बिताती
रात्रि, कैसे दीर्ध वासर,

क्या कहूँगा,क्या करूँगा,
मैं पहुँचकर पास उसके;
किन्तु उत्तर के लिए कुछ
शब्द जिह्वा पर ना आता

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!

मौन पाकर यक्ष मुझको
सोचकर यह धैर्य धरता,
सत्पुरुष की रीति है यह
मौन रहकर कार्य करता,

देखकर उद्यत मुझे
प्रस्थान के हित,

कर उठाकर
वह मुझे आशीष देता-

'इष्ट देशों में विचरता,
हे जलद, श्री व्रिध्दि कर तू
संग वर्षा-दामिनी के,
हो न तुझको विरह दुख जो
आज मैं विधिवश उठाता!'

'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!