Saturday, March 18, 2006

रक़ीब से- फैज़ अहमद फैज़

आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रक्खा था

जिसकी उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफसाना बना रक्खा था

आशना हैं तेरे कदमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है

कारवां गुज़रे हैं जिन से उसी रा'नाई के
जिसकी इन आखों ने बेसूद इबादत की है

तुझसे खेली हैं वो महबूब हवाएं जिनमें
उसके मलबूस की अफ़सुर्दा महक बाकी है

तुझ पे भी बरसा है उस बाम से महताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाकी है

तूने देखी है वो पेशानी, वो रूख़्सार, वो होंट
ज़िन्दगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने

तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आंखे
तुझ को मालूम है क्यों उम्र गंवा दी हमने

हम पे मुश्तरिका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के
इतने एहसान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकूं
हमने इस इश्क में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊं तो समझा न सकूं


अजिज़ी सीखी, गरीबों की हिमायत सीखी,
यासो-हिर्मार के, दुख-दर्द के माने सीखे
ज़ेरदस्तों के मुसाइब को समझना सीखा,
सर्द आहों के, रूखे़-ज़र्द के मने सीखे


जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके,
अश्क आंखो मे बिलकते हुए सो जाते हैं
नातुवानों के निवाले पे झपटते हैं उकाब़
बाज़ू तोले हुए मंडलाते हुए आते हैं


जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है, न पूछ
अपने दिल पे मुझे काबू ही नहीं रहता है

0 Comments:

Post a Comment

<< Home