Sunday, March 05, 2006

वर दे-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

वर दे
वीणावंदिनि वर दे
प्रिय स्वतंत्र-रव अम्रत-मन्त्र नव
भारत में भर दे!

काट अन्धउर को बन्धनस्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निरझर
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे

नव गति, नव लय, ताल, छन्द नव,
नवल कण्ठ, नव जलद-मन्द रव,
नव नभ के नव विहग-व्रिन्द को,
नव पर नव स्वर दे!


सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

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