Saturday, September 08, 2007

याद

याद

दश्त-ए-तन्हाई में, ऐ जान-ए-जहान, लर्ज़ां हैं
तेरी आवाज़ के साये, तेरे होठों के सराब,
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक तले
खिल रहे हैं तेरे पेहलू के समन-ओ-गुलाब.

उठ रही है कहीं करीब से तेरी सांस की आंच
अपनी खुश्बू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर, उफ़ाक पार, चमकाती हुई कतरा कतरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम

इस कदर प्यार से, ऐ जान-ए-जहान, रक्खा है
दिल के रुख्सार पे इस वक्त तेरी याद ने हाथ
यों गुमान होता है, गर्चे है अभी सुभ-ए-फ़िराक
ढल गया हिज्र का दिन, आ भी गयी वस्ल की रात.

फैज़
१९५३

1 Comments:

Blogger Veena said...

Insan Tab Samjhdaar Nahi Hota
Jab Wo Badi Badi Baatein Karne Lage,
Balki Samjhdaar Tab Hota Hai,
Jab Wo Chhoti Chhoti Baatein Samjhne Lage...

Sad Shayari

10:27 PM  

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