Wednesday, October 17, 2007

क्या करें

मेरी, तेरी, निगाह में
जो लाख इन्तेज़ार हैं

जो मेरे, तेरे तन बदन में
लाख दिल फ़िगार हैं

जो मेरी, तेरी उंगलियों की बेहिसी से
सब कलम निज़ार हैं

जो मेरे, तेरे शहर की
हर इक गली में
मेरे, तेरे नक्श-ए-पा के बेनिशां मज़ार हैं

जो मेरी, तेरी रात के
सितारे ज़ख्म ज़ख्म हैं

जो मेरी, तेरी सुबह के
गुलाब चाक चाक हैं

ये ज़ख्म सारे बे-दवा
ये चाक सारे बे-रफ़ू
किसी पे राख चांद की
किसी पे ओस का लहू
ये हैं भी या नहीं बता
ये हैं की महज़ जाल हैं
मेरे तुम्हारे अन्कबूत-ए-वहम क बुना हुआ
जो है, तो इस का क्या करें
नही है, तो भी क्या करें
बता, बता
बता, बता

फैज़, १९८०
मेरे दिल, मेरे मुसाफिर

Sunday, September 09, 2007

तन्हाई

तन्हाई
फिर कोई आया, दिल-ए-ज़ार, नहीं कोई नहीं,
राहरू होगा, कहीं और चला जायेगा
ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार,
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख्वाबीदा चिराग़.

सो गई रास्ता तक तक हर इक राहगुज़ार
अजनबी ख़ाक ने धुंधला दिये कदमों के सुराग़.
गुल करो शमाएं, बढ़ा दो मै-ओ-मीना-ओ-अयाग.
अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफ़्फ़ल कर लो,
अब यहां कोई नहीं, कोई नहीं आयेगा.

नक्श-ए-फ़रियादी
फैज़
१९४१





Tanhai (Solitude)
Who goes there, O heart bereaved? No one, no one,
A wayfarer perhaps, who will go elsewhere.
Night has waned, the dust of stars is scattering;
In great halls the sleepy lamps are fluttering,
Tired of the vigil, all roads have gone to sleep,
Alien dust has dimmed the bright trace of feet.
Put out the lights! take away the wine, goblet and flash!
Lock up your sleepless doors, O solitary heart.
No one will come here now, no one, no one.

Naqsh-e-Faryadi
Faiz
1941

Saturday, September 08, 2007

याद

याद

दश्त-ए-तन्हाई में, ऐ जान-ए-जहान, लर्ज़ां हैं
तेरी आवाज़ के साये, तेरे होठों के सराब,
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक तले
खिल रहे हैं तेरे पेहलू के समन-ओ-गुलाब.

उठ रही है कहीं करीब से तेरी सांस की आंच
अपनी खुश्बू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर, उफ़ाक पार, चमकाती हुई कतरा कतरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम

इस कदर प्यार से, ऐ जान-ए-जहान, रक्खा है
दिल के रुख्सार पे इस वक्त तेरी याद ने हाथ
यों गुमान होता है, गर्चे है अभी सुभ-ए-फ़िराक
ढल गया हिज्र का दिन, आ भी गयी वस्ल की रात.

फैज़
१९५३

Saturday, May 06, 2006

सोच-फैज़

क्यूं मेरा दिल शाद नहीं है क्यूं खामोश रहा करता हूं
छो़डो मेरी राम कहानी मैं जैसा भी हूं अच्छा हूं

मेरा दिल गमग़ीं है तो क्या गमगीं ये दुनिया है सारी
ये दुख तेरा है न मेरा हम सब की जागीर है प्यारी

तू गर मेरी भी हो जाये दुनिया के गम यूं ही रहेंगे
पाप के फ़न्दे, ज़ुल्म के बन्धन अपने कहे से कट न सकेंगे

गम हर हालत में मोहलिक है अपना हो या और किसी का
रोना धोना, जी को जलाना यूं भी हमारा, यूं भी हमारा

क्यूं न जहां का गम अपना लें बाद में सब तदबीरें सोचें
बाद में सुख के सपने देखें सपनों की ताबीरें सोचें

बे-फ़िक्रे धन दौलत वाले ये आखिर क्यूं खुश रहते हैं
इनका सुख आपस में बाटें ये भी आखिर हम जैसे हैं

हम ने माना जंग कड़ी है सर फूटेंगे,खून बहेगा
खून में गम भी बह जायेंगे हम न रहें, गम भी न रहेगा

दुआ-फैज़

आईए हाथ उठायें हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़-ए-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत, कोई खुदा याद नहीं

आईए अर्ज़ गुज़रें कि निगार-ए-हस्ती
ज़हर-ए-इमरोज़ में शीरीनी-ए-फ़र्दां भर दे
वो जिन्हें तबे गरांबारी-ए-अय्याम नहीं
उनकी पलकों पे शब-ओ-रोज़ को हल्का कर दे

जिनकी आंखों को रुख-ए-सुबह का यारा भी नहीं
उनकी रातों में कोई शमा मुनव्वर कर दे
जिनके कदमों को किसी राह का सहारा भी नहीं
उनकी नज़रों पे कोई राह उजागर कर दे

जिनका दीन पैरवे-ए-कज़्बो-रिया है उनको
हिम्मत-ए-कुफ़्र मिले, जुर्रत-ए-तहकीक मिले
जिनके सर मुन्ताज़िर-ए-तेग-ए-जफ़ा हैं उनको
दस्त-ए-कातिल को झटक देने की तौफ़ीक मिले

इश्क का सर्र-ए-निहां जान-तपां है जिस से
आज इकरार करें और तपिश मिट जाये
हर्फ़-ए-हक दिल में खटकता है जो कांटे की तरह
आज इज़हार करें ओर खलिश मिट जाये ।

बहार आई-फैज़

बहार आई तो जैसे एक बार
लौट आए हैं फिर अदम से
वो ख्ह्वाब सारे, शबाब सारे
जो तेरे होंठों पे मर मिटे थे
जो मिट के हर बार फिर जिए थे
निखर गये हैं गुलाब सारे
जो तेरी यादों से मुश्कबू हैं
जो तेरे उश्शाक का लहू हैं

उबल पड़े हैं अज़ाब सारे
मलाल-ए-अहवाल-ए-दोस्तां भी
खुमार-ए-आगोश-ए-महवशां भी
गुबार-ए-खातिर के बाब सारे
तेरे हमारेसवाल सारे, जवाब सारे
बहार आई तो खुल गये हैं
नये सिरे से हिसाब सारे।

Thursday, April 13, 2006

ना इश्क किया, ना काम किया-फैज़

वो लोग बहोत खुशकिस्मत थे,
जो इश्क को काम समझते थे,
या काम से आशिकी करते थे

हम जीते जी मसरूफ रहे
ना इश्क किया,
ना काम किया

काम इश्क के आडे़ आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया

Saturday, April 08, 2006

आखिरी ख़त-फैज़

वो वक़्त मेरी जान बहुत दूर नहीं है

जब दर्द से रुक जायेंगी सब ज़ीस्त की राहें

और हद से गुज़र जायेगा अन्दोहे-निहानी

थक जायेंगी तरसी हुई नाकाम निगाहें

छिन जायेंगे मुझसे मेरे आंसू मेरी आहें

छिन जायेगी मुझसे मेरी बेकार जवानी

शायद मेरी उल्फ़त को बहुत याद करोगी

अपने दिले-मासूम को नाशाद करोगी

आओगी मेरी गोर पे तुम अश्क बहाने

नौखे़ज़ बहारों के हसीं फूल चढ़ाने

शायद मेरी तुरबत को भी ठुकरा के चलोगी

शायद मेरी बेसूद वफ़ाओं पे हंसोगी

इस वज़'ए-करम का तुम्हें पास न होगा

लेकिन दिले-नाकाम को एहसास न होगा

अलक़िस्सा माआले-ग़मे-उल्फ़त पे हंसो तुम

या अश्क बहाती रहो, फ़रियाद करो तुम

माज़ी पे नदामत हो तु्म्हें या कि मसर्रत

खा़मोश पड़ा सोएगा बामांदा-ए-उल्फ़त

फैज़


जीस्त-जीवन

अन्दोहे-निहानी-भीतरी दुख

नाशाद--कब्र

अश्क-आंसू

नौख़ेज़-नई

तुरबत-कब्र

वज़'ए-करम-करम का ढंग

अलकि़स्सा- संक्षेप

माआले-गमे-उल्फत-प्रेम के दुख के परिणाम से

माज़ी पे- अतीत पर

बामांदा-ए-उलफत- प्रेम के हाथों से श्रान्त

Saturday, April 01, 2006

दोंनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के-फैज़

दोंनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के


वीरां है मैकदा ख़ुमो-साग़र उदास हैं
तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के


इक फुर्सते-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के


दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिलफरेब हैं ग़म रोज़गार के


भूले से मुस्कुरा तो दिये थे वो आज फै़ज
मत पूछ वलवले दिले-नाकर्दाकार के


हम पर तुम्हारी चाह का इल्जा़म ही तो है
दुश्नाम तो नहीं है ये अक़ाम ही तो है


करते हैं जिसपे तअन कोई जुर्म तो नहीं
शौके-फिज़ूलो-उल्फ़ते-नाकाम ही तो है


दिल नाउमीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है

फैज़