Thursday, April 13, 2006

ना इश्क किया, ना काम किया-फैज़

वो लोग बहोत खुशकिस्मत थे,
जो इश्क को काम समझते थे,
या काम से आशिकी करते थे

हम जीते जी मसरूफ रहे
ना इश्क किया,
ना काम किया

काम इश्क के आडे़ आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया

Saturday, April 08, 2006

आखिरी ख़त-फैज़

वो वक़्त मेरी जान बहुत दूर नहीं है

जब दर्द से रुक जायेंगी सब ज़ीस्त की राहें

और हद से गुज़र जायेगा अन्दोहे-निहानी

थक जायेंगी तरसी हुई नाकाम निगाहें

छिन जायेंगे मुझसे मेरे आंसू मेरी आहें

छिन जायेगी मुझसे मेरी बेकार जवानी

शायद मेरी उल्फ़त को बहुत याद करोगी

अपने दिले-मासूम को नाशाद करोगी

आओगी मेरी गोर पे तुम अश्क बहाने

नौखे़ज़ बहारों के हसीं फूल चढ़ाने

शायद मेरी तुरबत को भी ठुकरा के चलोगी

शायद मेरी बेसूद वफ़ाओं पे हंसोगी

इस वज़'ए-करम का तुम्हें पास न होगा

लेकिन दिले-नाकाम को एहसास न होगा

अलक़िस्सा माआले-ग़मे-उल्फ़त पे हंसो तुम

या अश्क बहाती रहो, फ़रियाद करो तुम

माज़ी पे नदामत हो तु्म्हें या कि मसर्रत

खा़मोश पड़ा सोएगा बामांदा-ए-उल्फ़त

फैज़


जीस्त-जीवन

अन्दोहे-निहानी-भीतरी दुख

नाशाद--कब्र

अश्क-आंसू

नौख़ेज़-नई

तुरबत-कब्र

वज़'ए-करम-करम का ढंग

अलकि़स्सा- संक्षेप

माआले-गमे-उल्फत-प्रेम के दुख के परिणाम से

माज़ी पे- अतीत पर

बामांदा-ए-उलफत- प्रेम के हाथों से श्रान्त

Saturday, April 01, 2006

दोंनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के-फैज़

दोंनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के


वीरां है मैकदा ख़ुमो-साग़र उदास हैं
तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के


इक फुर्सते-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के


दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिलफरेब हैं ग़म रोज़गार के


भूले से मुस्कुरा तो दिये थे वो आज फै़ज
मत पूछ वलवले दिले-नाकर्दाकार के


हम पर तुम्हारी चाह का इल्जा़म ही तो है
दुश्नाम तो नहीं है ये अक़ाम ही तो है


करते हैं जिसपे तअन कोई जुर्म तो नहीं
शौके-फिज़ूलो-उल्फ़ते-नाकाम ही तो है


दिल नाउमीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है

फैज़